भगवान श्रीराम लंका पर आक्रमण करनेँ के लिए समुद्र तट पर पुल बना रहे थे।
एक गिलहरी बार-बार नदी पर लोटकर अपनेँ शरीर पर रेत चिपका कर लाती थी।
अपनेँ शरीर मेँ लिपटी रेत को वह ढेर मेँ डाल देती थी।
वानरोँ नेँ यह किस्सा जाकर श्रीराम जी को बताया। श्रीराम नेँ गिलहरी को
बुलाया और कहा, यह क्या कर रही हो गिलहरी।
गिलहरी नेँ कहा- लंका पर विजय पानेँ की तैयारी।
श्रीराम नेँ कहा- तुम्हारे चंद रेत के कणोँ से क्या होगा? गिलहरी नेँ
कहा- माफ करेँ भगवान, रेत के कण कम हैँ या ज्यादा यह तो मैँ नहीँ जानती,
पर मैँ इतना जरूर जानती हूँ कि मेरी जितनी क्षमता है, मैँ पूरी ताकत
लगाकर अपना योगदान दे रही हूँ।
भगवान श्रीराम गिलहरी के उत्साह से धन्य हो गये। उन्होँनेँ प्यार से
गिलहरी के शरीर पर हाथ फेरा। कहते हैँ गिलहरी के शरीर पर जो धारियाँ हैँ,
वह भगवान श्रीराम के हाथ की छाप हैँ।
उत्सास कभी, उम्र का, शारीरिक क्षमता का, धन सम्पत्ति की मोहताज नहीँ
होती है। उत्साह को हर समय आपके साथ रखिये क्योँकि यह ठण्ड के मौसम मेँ
आग, धुप, गरम कपड़ोँ की तरह काम करेगा।
अपनेँ कार्य के प्रति हमेशा उत्साहित रहेँ। यदि आप कामयाबी पाना चाहते
हैँ तो लोगोँ के भीड़ मेँ अलग नजर आयेँ। हतोत्साहित होकर किसी कार्य को
करनेँ से आपके हाथ कुछ भी नहीँ लगेगा, इसीलिये भरपूर उत्साह के साथ अपनेँ काम को करेँ।
..Note-
यह कहानी जीत या हार रहो तैयार पुस्तक से ली गई है जिसके Author Mr. Ujjawal Patni जी हैं।
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