एक बार स्वर्ग में बहुत
सारे लोग एक साथ इकठ्ठा होकर पहुँचे हुए थे और उनके बीच स्वर्ग की गद्दी पर बैठने
को लेकर विवाद होने लगा. तभी धर्मराज ने कहा- “आप सब लोग इस प्रकार न झगड़ें! आप सब
लोग अपने जीवन
में जितने भी अच्छे-बुरे कार्य किये हैं उन सबका विवरण इस प्रपत्र
पर लिखें. और जो कोई भी धर्म की इस कसौटी पर श्रेष्ठ होगा उसे ही स्वर्ग में जगह
दी जायेगी.” अब क्या होना था, सभी लोगों ने परीक्षा-प्रपत्र भरकर धर्मराज के आगे
रख दिया.
परीक्षा-प्रपत्रों की जाँच
की गई, सभी आत्मीयता से भरे हुए थे. किसी ने प्रपत्र में लिखा था- मैंने जीवन भर
तप किया है. किसी ने लिखा था- मैंने जीवन भर व्रत उपवास किया है, जीवन भर दान किया
है.
धर्मराज ने अपनी
दिव्यदृष्टि से नजर डाली तो पाया कि सब बकवास था! इतने में उन्हें एक प्रपत्र मिला
उसमें सभी प्रविष्टियाँ कुछ अधूरी-सी थी. लेकिन अंत में लिखा था- “मैं तो भूल से
स्वर्ग आ गया हूँ. मुझे जाना तो नरक में था. ऐसा मैंने कोई भी काम नहीं किया है कि
मैं स्वर्ग आऊँ! मैं तो नरक में जाकर दीन-दुखियों की सेवा करना चाहता था..”
धर्मराज ने मात्र इसी व्यक्ति को स्वर्ग का अधिकारी का माना..
लेकिन बाकि सभी लोग इस बात
का विरोध करने लगे क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में श्रेष्ठ कार्य किये थे एवं उन
सबको पूर्ण विश्वास था कि उन्हें स्वर्ग में जगह मिलने वाली है, पर इसके ठीक
विपरीत हुआ! इसलिए उन्होंने धर्मराज से इसका कारण जानने के उद्देश्य से पुछा- “धर्मराज
इस आदमी ने जीवन भर क्या किया ये हमें नहीं जानना, पर कृपया हमें यह बताएं कि हम
पृथ्वीलोक पर स्वर्ग की प्राप्ति मन में लिए इतना अच्छा कर्म किये जा रहे थे, परोपकार
ही जिंदगी भर किये पर हमें स्वर्ग नहीं मिल रहा है, ये तो हमारे साथ अन्याय है..”
धर्मराज हँसते हुए बोले- “बात
कर्मों की नहीं है, बल्कि कर्म फल की इच्छा की है. यदि आप सब निःस्वार्थ भाव से बिना
किसी लालच के दूसरों की सेवा करते, बिना फल की चिंता किये, सिर्फ अपना कर्म करते
तो आज स्वर्ग की प्राप्ति आप सबने की होती. इस आदमी ने बिना किसी स्वार्थ के
दूसरों की सेवा की, और बिना स्वर्ग की लालसा लिए यह अपना कर्म करता रहा इसी कारण
आज इसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई है.”
सभी व्यक्तियों को धर्मराज
की बातें समझ आ चुकी थीं और आज उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति तो नहीं पर बहुत बड़े
ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी..
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